नींद से कहीं दूर
मिलती थी वोह
अकेले, चुप-चाप.
इस बार का बादल पिला नहीं
लाल होगा
कहा था
रात के अँधेरे में.
मेरा शहर झलकता हर बार
उसकी अधखुली आँखों से
नींद में चौंधियाये
और भी अच्छे लगते
हलके भूरे.
सुनहली धूप चमचमाती
नदी की चादर
अक्सर ओढ़ती,
बुदबुदाती मंत्र.
और फिर गुम हो जाती
अनंत के सफ़र में.
मेरा शहर लौटता
दबे पाव, पिछले आंगन में.
शहर से बहुत दूर
होती शहर की बातचीत
उसमें बीतता बचपन और बुढापा
कभी माँ दीखती टहलती पहचाने रास्तों में
कभी सीमा अब अपने बच्चों को स्कूल भेजती.
इतने दूर से आवाज़
नहीं पहुचती थी
घर के काई लगे आँगन में.
माँ कैसे बुनेगी गीत सोहर के?
कैसे कहेगी किस्से?
गाएगी वोह सरे गीत जो भेजती हूँ
मैं इस सुदूर शहर से...
4 comments:
I admit myself it looks very forced.
Beautiful!
esp "मेरा शहर लौटता
दबे पाव, पिछले आंगन में."
heres my 2 paise ka contribution:
नुक्कड़ के कोलाहल में कभी गूंजती इमाम की आवाज़ अज़ान के सुरों में
तो कभी मस्तु के कैंचियों की ध्वनि मिल जाती डालडे के डब्बों की थरथराती तालों में
हर मोड़ पर खुलते हैं नए पहलु जैसे नदी मूर्ति हैं स्थिर एवं सिथिल, पर अडिग
वैसे ही शहर की हर टेढी मेढी गली की अपनी ही कहानि छुपी हैं किसी अनजान कोने में.
You were right, I couldn't understand :(
Post a Comment